नागा साधु या योद्धा सन्यासी

नगाओं के प्रमुख पांच गुरु माने गए हैं,जिनमे से भगवान शंकर, विष्णु, शक्ति, सूर्य और गणेश हैं। सबसे पहले वेद व्यास जी ने संगठित रूप से वनवासी संन्यासी परंपरा शुरू की थी। उनके बाद सुकरदेव जी ने फिर अनेक ऋषि और संतो के बाद आदि शंकराचार्य जी ने चार मठ स्थापित कर दसनामी संप्रदाय का गठन किया। आद गुरु शंकराचार्य जी द्वारा स्थापित शेव संप्रदाय के संन्यासी ही दशनामी कहे गए हैं, दशनामी संप्रदाय में कई नागा भी हुए , जिनका युद्ध के साथ पुराना इतिहास रहा हैं, पहले दशनामी साधु देश भर में घुमा करते थे, लेकिन ब्रिटिश सरकार ने इस पर पाबंदी लगा दी। इन्हे युद्धक संन्यासी भी कहा जाता हैं। क्योंकि ये अस्त्र शस्त्र और लड़ाई में निपुण होते हैं, सोलवी शताब्दी में बनारस के मधुसूदन सरस्वती जी ने संन्यासियों की , युद्धक टुकड़ी बनाई थीं, जो रक्षा के लिए तलवार उठाती थी। वाराणसी में जब ओरंगजेब ने विश्वनाथ मंदिर पर हमला करवाया था, तब इन्हीं संयासियों ने मंदिर की रक्षा के लिए शस्त्र उठाए थे, ओर वाराणसी की संस्कृति को बचाया था। नागा साधुओं की परंपरा हजारों साल पुरानी है। कई प्राचीन वैदिक ग्रंथों में भी दिगंबर नागा के संदर्भ मिलते हैं। नागा साधु बनने की प्रक्रिया में बारह साल का समय लगता है। लेकिन छह साल के समय को जायदा महत्वपूर्ण माना गया है। इन छः साल की अवधि में साधु सारी जानकारियां हासिल करते हैं। ओर सिर्फ लगोंट को ही धारण करते हैं। नागा साधु बनने की प्रक्रिया में सबसे पहले इन्हे ब्रह्मचर्य की शिक्षा प्राप्त करनी होती हैं। इसमें सफल होने के बाद ही उन्हें महापुरुष दीक्षा दी जाती हैं। ओर फिर यक्षोपनीत होती हैं। नागा साधु अपने परिवार और स्वयं अपना पिंडदान करते हैं। इस प्रक्रिया को बिजवान कहा जाता हैं। यही कारण हैं, की नागा साधुओं के लिए सांसारिक परिवार का महत्व नहीं होता , ये समुदाय को ही अपना परिवार मानते हैं। नागा साधु भगवान शिव के अलावा किसी को भी ईश्वर नही मानते हैं.

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