देवदासी एक ऐसी प्रथा जो हमारे दक्षिण भारत में प्रचलन में आई, देवदासी का अर्थ होता हैं,
इस प्रथा के अंतर्गत परिवार वाले अपने घर की लड़की को अपनी सहमति या किसी मन्नत के चलते खुशी खुशी मंदिर में दान दे दिया करते थे।
इस प्रक्रिया के दौरान लड़कियों को किसी दुल्हन की तरह सजा कर ढोल नगाड़ों के साथ मंदिर में ले जाया जाता था।
ओर उन्हे भगवान को सौंप दिया जाता था।
जहां पर वो अपनी सारी जिंदगी भगवान की पूजा और अपनी नृत्य और गायन प्रतिभा से उनकी आराधना किया करती थीं।
इस प्रथा की शुरुवात छठी शताब्दी से मानी जाती हैं, देवदासी की पौराणिक विचारधारा का विस्तार सबसे जायदा सात सौ से बारह सौ ईस्वी के बीच हुआ..
कोटिलेय के अर्थशास्त्र में पहली बार देव दासी शब्द का जिक्र मिला.. राजतरगणी, कुटुनिमतम ओर कथा सरितसागार साहित्यक रचनाओं में भी देव दासी शब्द का प्रयोग हुआ हैं।
कहीं कही इन्हे कृष्णदासी कहकर भी संबोधित किया गया हैं..
दक्षिण भारत में तमिल में देव दासी को देवरतियाल , मलयालम में तेवादीची ओर कर्नाटक में वास्बी एवं बेश्या बोल कर संबोधित किया जाता था।
उत्तरी भारत में इन्हे देव दासी कहा जाता था।
अब यहां सवाल यह उठता हैं, की आखिर देवदासियों के लिए वासवी या वैश्या शब्द क्यों उपयोग में लाए गए।
इसके पीछे का कारण बेहद गंभीर और शर्मनाक है।
असल में इन शब्दों के प्रयोग के पीछे का कारण था देवदासियो के साथ होने वाला शारीरिक शोषण।
जो समाज के सामने एक कुरूती बन कर उभरा ..
जैसा की देवदसिया वो लडकियां होती थी..जिन्हे मंदिर में देवताओं या भगवान की सेवा करने के लिए दान दे दिया जाता था।
चूंकि लडकियों का परिवार उन्हे मंदिरों को सौंप चुका
होता था।
तो ऐसे में उनका शारीरिक शोषण करना आसान हो जाता था।
ज्यादातर मंदिर में मौजूद पुरोहित और रसूखदार आदमी इनका शोषण किया करते थे।
धर्म स्थल के पुजारी ये बोल कर इनके साथ शारीरिक संबंध स्थपित करते थे, की इस से उनके और भगवान के बीच संपर्क स्थापित होगा।
धीरे धीरे यह उनका अधिकार बन गया। जिसको बाद में सामाजिक स्वीकारता भी मिल गई.
उसके बाद राजाओं ने अपने महलों में देव दसियों को रखना शुरू कर दिया।
पहले समाज में इनका एक उच्च स्थान होता था।देव दासिया समाज में पूजनीय होती थी।
लेकिन समय के साथ साथ हालात बद से बदतर होते गए।
ओर समाज ने इनकी स्तिथि एक वैश्या के रूप में बन कर रह गई..
देव दासी जैसी प्रथा जो समाज के बीच एक कुप्रथा में बदल चुकी थी..उस पर रोक लगाने में सबसे बड़ा योगदान दिया मुथुलक्ष्मी रेड्डी जी ने..
इनका जन्म तीस जुलाई अठारह सौ छीयासी में तमिलनाडु के पुडुकोटाई में हुआ था..
उनके पिता नारायण स्वामी अयर महाराजा कॉलेज में अध्यापक थे।
ओर उनकी मां चंद्रमाई देव दासी समुदाय से थी।
उन्होंने परिषद् में लड़कियों के विवाह की उमर बड़ाकर चौदह करने वाले विधेयक को प्रस्तुत करते हुए दलील पेश करते हुए बोला था..
की, सती प्रथा में कुछ ही देर की पीड़ा होती हैं,जबकि लड़की को बाल विवाह की प्रथा में पूरी उम्र जन्म से लेकर मृत्यु तक एक बाल पत्नी, बाल मां और बाल विधवा के तौर पर जिंदगी भर की पीड़ा मिलती हैं, उन्होंने अपनी किताब my experience as lagislecture में इसका जिक्र किया हैं। मुथुलक्ष्मी जी ने देवदासी प्रथा को खत्म करने के लिए कानून पास करवाने में अगुआ रही..
उन्हें इस प्रक्रिया में सभी कटर समूहों से विरोध का सामना करना पड़ा..
हालांकि इस प्रस्ताव को मद्रास विधान परिषद ने सर्वसम्मति से समर्थन दिया। ओर केंद्र सरकार से इसकी सिफारिश करी।
ये विधेयक 1947 में अखिरखार कानून बन गया।
मद्रास विधान परिषद के समक्ष प्रस्ताव पेश करते हुए मुथुलक्ष्मी रेड्डी ने कहा था।
देवदासी प्रथा सती प्रथा का सबसे खराब रूप
हैं, ओर ये एक धार्मिक अपराध हैं।
उन पर एनी बेसेंट और महात्मा गांधी की विचारधारा का गहरा प्रभाव था।
उन्होंने दवाओं और समाज सुधार के क्षेत्रों में योगदान के लिए 1956 में पदम भूषण से सम्मानित किया गया था।
तमिलनाडु सरकार ने 1986 में मुथुलक्ष्मी की जन्मतिथि पर उनके सम्मान में एक डाक टिकट जारी किया गया।

मुथुलक्ष्मी को 1968 में 81 साल की उम्र में अंतिम सांस ली। गोगल ने उनकी जयंती पर एक डूडल भी बनाया था।